Tuesday 31 May 2016

Monday 30 May 2016

सिंगर अभिजीत भट्टाचार्य ने नसीरुद्दीन शाह को बताया पाक पुजारी

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बॉलीवुड के मशहूर गायक अभिजीत भट्टाचार्य को तो सब जानते ही है l आजकल वो हर ज्वलंत मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए नजर आरहे है l ये वही अभिजीत है जिन्होंने बॉलीवुड में रहते हुए असहिष्णुता पर अपनी बात बेबाकी से रखी थी l


यहाँ बात हो रही है नसीरुद्दीन शाह के उस बयान पर जो उन्होंने अनुपम खेर को लेके दिया है l नसीरूदीन के बयान को लेकर अभिजीत ने उनपर हमला बोल दिया है और साथ ही आमिर खान को भी अपने बयान में लपेट लिया l अनुुपम खेर और नसीरुद्दीन शाह के बीच वार-पलटवार तो सबने देखा किन्तु शाह पर नया वार गायक अभिजीत भट्टाचार्य ने शाह पर


बेहद तल्ख टिप्पणी करके किया है l अपने ट्वीटर अकाउंट पर अभिजीत ने नसीरुद्दीन शाह के उस बयान को कोट करते हुए लिखा जिसमे शाह ने खेर पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि अनुपम खेर कभी कश्मीर गए नहीं लेकिन कश्मीरी पण्डितों का मुद्दा उठाते हैl उन्होने लिखा कि “सब कुछ पाया हमने फिर भी छोड़ी न गद्दारी, मानों या न मानों हम तो हैं पाक के पुजारी” आपकों बता दें इस ट्वीट के साथ अभिजीत ने शाह की एक फोटो भी लगाई हैं abhi

Saturday 28 May 2016

साथियो ‪#‎देश_बदल_रहा_है AAP


एबीपी न्यूज़ में कार्यरत एक पत्रकार मित्र ने मुझे ये फोटो भेजी है, बिकाऊ मीडिया का दोगलापन देख कर बहुत दुःख हुआ। मोदी की बिकाऊ मीडिया आपको ये हकीकत कभी नहीं दिखाएगी।
साथियो ‪#‎देश_बदल_रहा_है‬, अगर आज अगर देश में चुनाव हो जाए तो केंद्र में अरविन्द जी के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार सत्ता में आ जाए।
मैं आप सभी फैन्स से अनुरोध करता हु की इस पोस्ट को देश के आम आदमी तक पहुचाए। इस पोस्ट को शेयर करके एबीपी न्यूज़ और केंद्र की फेंकू सरकार के मुह पर तमाचा जड़े। - कपिल मिश्रा

Sunday 22 May 2016

क्या आपने कभी सोचा है कि औरतें मांग क्यूं भरती हैं..?

1 चुटकी सिंदूर की कीमत तुम क्या जानो ...? 
क्या आपने कभी सोचा है कि औरतें मांग क्यूं भरती हैं..?
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नहीं पता न...
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मैं बताता हूँ।
औरतें मांग इसलिए भरती हैं ताकि लोगों को पता चल जाए कि इस प्लाट की रजिस्ट्री हो चुकी है।
पुरुष कभी मांग नहीं भरते क्योंकि ये तो गोचर भूमि है,
इसकी रजिस्ट्री नही हो सकती।
शादी के समय आपने देखा होगा वरमाला का समय होता है तब दुल्हन के साथ तीन चार और लडकियां आती हैं, उसका क्या तात्पर्य है?
उसका तात्पर्य है कि जिस प्लाट की रजिस्ट्री हो रही होती है उसके नक्शे में आस-पास खाली प्लाट दिखाने पड़ते हैं।
इसमे भी एक समस्या है कि कुछ की रजिस्ट्री हो चुकी होती है और बाकियों पर अवैध कब्जा चल रहा होता है।
😜😝😭😂😳

Saturday 21 May 2016

जुमलो का 2 साल तक का सफर

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अच्छे दिनों का ये जुमला दरअसल इतना घिस चुका है कि इसे शीर्षक के रूप में इस्तेमाल करते हुए भी थोड़ा उदासी का भाव आ जाता है। पर क्या करें पिछले साल की तपती गर्मी में तपा और उछला ये नारा अब तक गरम बना हुआ है। ‘अच्छे दिन आने वाले हैं, हम मोदी जी को लाने वाले हैं’ ये नारा गूंजा ही इतनी जोर-शोर से था कि आकलन भी इसी को आधार बनाकर होगा। आपने कहा-अबकी बार मोदी सरकार, जनता ने कर दिया। आपने कहा कि मोदी सरकार आने से अच्छे दिन भी आएंगे। सो अब आकलन का आधार तो ये अच्छे दिन बनेंगे ही।
अच्छे दिनों पर सीधे और लगातार प्रहार इसलिए भी होते रहेंगे क्योंकि ये बहुत ही विषयनिष्ठ मामला है यानि ‘सब्जेक्टिव’ है। इसके कोई तय पैमाने नहीं हैं। अच्छे दिन कोई ऐसी स्थिति तो है नहीं कि आप किसी पैथोलॉजी लैब में जाकर जांच करा लें और पता लगा लें कि अच्छे दिन आए कि नहीं आए? ना केवल समाज के हर वर्ग के लिए बल्कि हर व्यक्ति के लिए अच्छे दिन के मायने अलग-अलग हैं। ये भी बहुत संभव है कि आप पूछने निकलो तो लोग ठीक से ये ना बता पाएं कि उनके लिए अच्छे दिन का मतलब क्या है। ये भी होगा कि लोग आज कुछ बोलेंगे कल कुछ और। सो अच्छे दिन को लेकर ये बवाल तो मचा ही रहेगा।
बाहरहाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने भी अपनी सरकार के एक साल पूर्ण होने पर मथुरा रैली में अपने एक घंटे के धाराप्रवाह भाषण में इसी नारे के साथ ही अपना आकलन किया है। अलग ये था कि उन्होंने बजाय ये कहने के कि अच्छे दिन आ गए हैं ये कहा कि बुरे दिन चले गए हैं। निश्चित ही अगर अच्छे दिन आ जाएंगे तो बुरे दिन चले ही जाना चाहिए। पर क्या सच में बुरे दिन चले गए हैं? और क्या सच में समूचे भारत के लिए एक साथ बुरे दिनों का चले जाना और अच्छे दिनों का आ जाना संभव है? क्या पूरे के पूरे 125 करोड़ लोगों के लिए अच्छे दिन लाए जा सकेंगे, वो भी इतनी जल्दी? मोदी जी के बाकी तमाम नारों जैसे स्वच्छता अभियान या डिजिटल इंडिया का तो फिर भी वस्तुनिष्ठ आकलन हो सकता है पर इस अच्छे दिन के लिए तो वर्गावार, व्यक्तिवार आकलन गंभीर मसला हो सकता है।
हम किसी बड़े दार्शनिक सिद्धांत या दृष्टांत का हवाला ना भी दें तो भी रोटी, कपड़ा और मकान को इंसानी जरूरत माना गया है। आज के समय में बुनियादी जरूरतें इससे भी ऊपर जा चुकी हैं पर ये तीन तो बनी हुई हैं और सर्वमान्य हैं। अर्थव्यवस्था के पेचीदा आंकड़ों में पड़े बगैर हम बहुत संक्षेप में ही इनको देख लें –
रोटी: दुष्यंत कुमार जी ने कहा था–
भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुद्दआ
हालांकि इसके बर-अक्स ये भी ठीक नहीं कि हम फुटपाथ पर लेटे एक भूखे गरीब को पूरे देश का प्रतिनिधि चेहरा मान लें और हाय कलाप करें। जो लोग मेहनत कर के कमा रहे हैं वो खरीद के रोटी भी खा रहे हैं। कैसे और किस कीमत पर ये जरूर लंबी बहस का मसला है।
कोई पांच सितारा होटल में दो लोगों के लिए दस हजार रुपये का बिल चुका रहा है और कोई 20 रुपये में वड़ा पाव खा रहा है। ठीक है जिसके पास है वो खर्च कर रहा है। पर आकलन इस आधार पर होगा कि घर में भोजन की थाली के क्या हाल हैं। दाल फिर 100 रुपये किलो है और सब्जियां 40-50 रुपये किलो से ऊपर। अगर आपको खुद रोज हरी सब्जी खरीदने से पहले सोचना पड़ रहा है तो बहुत अच्छे दिन तो नहीं हैं।
रोटी को लेकर एक और अहम मुद्दा ये है कि अन्न उगाने वाला किसान और उसे ग्रहण करने वाला आम आदमी दोनों ही इसको लेकर दुखी हैं। सारे नहीं, पर बहुत सारे। जैसा कि इकबाल कह गए –
जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोटी
उस खेत के हर गोशा-ए-गंदुम को जला दो
(दहकां- किसान, गोशा-ए-गंदुम – गेहूं की बाली)
कपड़ा: तन तो हर कोई ढंक ही लेता है। कोई चीथड़े से कोई लुई फिलिप से। पर हां जिसे अच्छे कपड़े पहनने की आस है और वो शोरूम के बाहर टकटकी लगाए खड़ा है तो फिर उसे अच्छे दिनों का इंतजार करना पड़ेगा। बात फिर वही है कि भले ही सारा हिंदुस्तान नंगा नहीं घूम रहा पर वो तन ढंकने के लिए जो जतन कर रहा है उसमें तो ‘चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन’..... और क्या कहिए?
 मकान: ये बहुत गंभीर और पेचीदा मसला है। यहां बहुत हताशा और निराशा है। खुद के लिए एक अच्छा मकान अगर आज से 15 साल पहले पहुंच से बाहर था तो आज भी है। जमीन के दाम भी आसमान छू रहे हैं और मकान के भी। अगर तनख्वाह दुगुनी हुई है तो घर और जमीन के दाम चौगुने। तो आबुदाना ढूंढ़ने की कवायद जस की तस है। नए जमाने के जमींदार घोड़े पर बैठकर हंटर लेकर नहीं आते, वो तो जमीन और घर का सपना देखने वालों को लूटते चले जाते हैं। मद्दीवाडा है तो वो बेचने वाले के लिए। प्रॉपर्टी के कारोबारी के लिए। आम आदमी के लिए घर तो सपना ही है। घर इतने भयानक महंगे हो गए हैं और ऐसी-ऐसी कारीगरी हुई है जमीन को लेकर कि यहां तो खैर सबकुछ समेटा ही नहीं जा सकता। पर किसी के पास चार मकान और दो फ्लैट हैं और कहीं जिंदगी किराये के मकान में कट रही है।
इसके अलावा किसी भी समाज की रीढ़ मानी जाने वाली दो और बुनियादी जरूरतों को देख लेते हैं। ये हैं –शिक्षा और स्वास्थ्य। इन दोनों ही मामलों में पिछली सरकारें ही नहीं एक देश के रूप में भारत भी बुरी तरह विफल हुआ है। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं दोनों ही इतने महंगे हो गए हैं कि उच्च वर्ग के भी पसीने छूट जाते हैं। आम आदमी की तो बिसात ही क्या? ऐसा लगता है कि शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों ही मामलों में जनता को पैसे के भूखे भेड़ियों के सामने छोड़ दिया गया हो। जितना लूट सकते हो लूट लो।
शिक्षा: अच्छे निजी स्कूल में बच्चों को पढ़ाना मजबूरी है क्योंकि अच्छे सरकारी स्कूल हैं नहीं। निजी स्कूल जो फीस बोलें वो दो और सहो। यहां पाठ्यक्रम की बात तो हम कर ही नहीं रहे, क्या हमारी शिक्षा हमें ज्ञान भी दे पा रही है? क्या डिग्री सचमुच प्रतिभा का पैमाना है? ये सब सवाल अलग बहस और अलग आलेख का मुद्दा होंगे पर क्या हम बच्चों को स्कूल भेज रहे हैं या स्कूल के नाम पर खुल गई दुकानों में जहां सब बस पैसे के लिए है और बिकाऊ है। फिर वही बात, सारे खराब नहीं हैं, पर बहुत सारे खराब हैं। अपवाद हैं। पर अफसोस ये ही है कि अच्छे स्कूल अपवाद हैं, बुरे नहीं। और जिस समाज में अच्छाई अपवाद के रूप में पाई जाती हो और बुराई बहुतायत में मिलती हो, वो समाज कैसे अच्छे दिनों का नारा बुलंद कर सकता है?
स्वास्थ्य: किसी भी ठीक-ठाक अस्पताल में भर्ती हो जाइए। इलाज होगा कि नहीं ये बाद में लेकिन बिल तगड़ा आएगा। बीमा है तो और भी तगड़ा। उसके बाद भी सही इलाज मिलेगा कि नहीं, कोई गारंटी नहीं है। ये ठीक है कि चिकित्सा शिक्षा महंगी है। उपकरण महंगे हैं। सुविधा उपलब्ध करवाने में खर्च होता है। पर खर्च कर के भी सुविधा मिले तो? भरोसा तो हो कि जबरन जांच या ऑपरेशन नहीं हो रहे। इलाज बिल्कुल ठीक मिलेगा। खर्च को कम करने के लिए क्या हो रहा है? इन खर्चों पर कोई नियमन है? फिर वही, यहां भी अच्छाई है पर अपवादस्वरूप....। ज़्यादा है तो लूट लेने की लालसा।
ये भी हमको ईमानदारी से स्वीकारना होगा कि ये जो समस्याएं हैं और जो क्षरण है ये कई सालों में आया है। इसके होने के लिए ये सरकार जिम्मेदार नहीं है, पर इसे सुधार नहीं पाई या उस दिशा में कदम भी नहीं उठा पाई तो फिर इसे अच्छे दिनों का नारा बुलंद नहीं करने देंगे। इस सरकार से ये उम्मीद करना कि ये यकायक ठीक हो जाएगा, बेईमानी होगी। पर इस दिशा में सोच और काम नहीं होगा तो अच्छे दिन बस जुमले में ही रह जाएंगे। ऐसे ही और मोर्चों की पड़ताल भी होगी पर ये वो पांच बुनियादी मोर्चे हैं जिससे हर आदमी को हर रोज जूझना है।


इंसान ?

कोई हिन्दू कोई मुस्लिम    
          कोई ईसाई है
सब ने इंसान न बनने की
           क़सम खाई है...

Wednesday 18 May 2016

"जा सिमरन, कर स्वच्छ भारत

"बाऊजी मुझे स्वच्छ भारत का हिस्सा बनना है" "जा सिमरन, हटा ले सारा गंदगी"
"बाऊजी मुझे स्वच्छ भारत का हिस्सा बनना है"
"जा सिमरन, हटा ले सारा गंदगी"

केजरीवाल जी ने क्या बोला जो BREAKING NEWS बन गई

                                   केजरीवाल जी ने क्या बोला जो BREAKING NEWS बन गई 
दिल्‍ली: पूर्ण राज्‍य बनाने में हमारा सभी दल सहयोग करेंगे - केजरीवाल

Tuesday 17 May 2016

MCD उपचुनाव : 10 साल से जमी बैठी BJP को AAP का करारा जवाब...

दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के 13 वार्डों में हुए उपचुनावों के नतीजे आ चुके हैं. इस चुनाव में आम आदमी पार्टी ने 5 सीटों पर जीत हासिल कर बीजेपी को करारा जवाब दिया है.
वहीं कांग्रेस ने भी 4 सीटें जीतकर अच्छी वापसी की है. दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी के लिए इस चुनाव को एक ‘टेस्ट’ के तौर पर देखा जा रहा था, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी बीते 10 साल से लगातार एमसीडी पर काबिज रही है. लेकिन इस चुनाव में बीजेपी के खाते में महज 3 सीटें आईं.

Friday 13 May 2016

फर्जी डिग्री


श्रीकृष्ण - उठो पार्थ, युद्ध करो
अर्जुन - मैं युद्ध नही कर सकता प्रभु
श्रीकृष्ण - क्यों
अर्जुन - केजरीवाल ने कहा है कि मेरी धनुर्विद्या की डिग्री फर्जी है।। ;-)