Saturday 21 May 2016

जुमलो का 2 साल तक का सफर

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अच्छे दिनों का ये जुमला दरअसल इतना घिस चुका है कि इसे शीर्षक के रूप में इस्तेमाल करते हुए भी थोड़ा उदासी का भाव आ जाता है। पर क्या करें पिछले साल की तपती गर्मी में तपा और उछला ये नारा अब तक गरम बना हुआ है। ‘अच्छे दिन आने वाले हैं, हम मोदी जी को लाने वाले हैं’ ये नारा गूंजा ही इतनी जोर-शोर से था कि आकलन भी इसी को आधार बनाकर होगा। आपने कहा-अबकी बार मोदी सरकार, जनता ने कर दिया। आपने कहा कि मोदी सरकार आने से अच्छे दिन भी आएंगे। सो अब आकलन का आधार तो ये अच्छे दिन बनेंगे ही।
अच्छे दिनों पर सीधे और लगातार प्रहार इसलिए भी होते रहेंगे क्योंकि ये बहुत ही विषयनिष्ठ मामला है यानि ‘सब्जेक्टिव’ है। इसके कोई तय पैमाने नहीं हैं। अच्छे दिन कोई ऐसी स्थिति तो है नहीं कि आप किसी पैथोलॉजी लैब में जाकर जांच करा लें और पता लगा लें कि अच्छे दिन आए कि नहीं आए? ना केवल समाज के हर वर्ग के लिए बल्कि हर व्यक्ति के लिए अच्छे दिन के मायने अलग-अलग हैं। ये भी बहुत संभव है कि आप पूछने निकलो तो लोग ठीक से ये ना बता पाएं कि उनके लिए अच्छे दिन का मतलब क्या है। ये भी होगा कि लोग आज कुछ बोलेंगे कल कुछ और। सो अच्छे दिन को लेकर ये बवाल तो मचा ही रहेगा।
बाहरहाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने भी अपनी सरकार के एक साल पूर्ण होने पर मथुरा रैली में अपने एक घंटे के धाराप्रवाह भाषण में इसी नारे के साथ ही अपना आकलन किया है। अलग ये था कि उन्होंने बजाय ये कहने के कि अच्छे दिन आ गए हैं ये कहा कि बुरे दिन चले गए हैं। निश्चित ही अगर अच्छे दिन आ जाएंगे तो बुरे दिन चले ही जाना चाहिए। पर क्या सच में बुरे दिन चले गए हैं? और क्या सच में समूचे भारत के लिए एक साथ बुरे दिनों का चले जाना और अच्छे दिनों का आ जाना संभव है? क्या पूरे के पूरे 125 करोड़ लोगों के लिए अच्छे दिन लाए जा सकेंगे, वो भी इतनी जल्दी? मोदी जी के बाकी तमाम नारों जैसे स्वच्छता अभियान या डिजिटल इंडिया का तो फिर भी वस्तुनिष्ठ आकलन हो सकता है पर इस अच्छे दिन के लिए तो वर्गावार, व्यक्तिवार आकलन गंभीर मसला हो सकता है।
हम किसी बड़े दार्शनिक सिद्धांत या दृष्टांत का हवाला ना भी दें तो भी रोटी, कपड़ा और मकान को इंसानी जरूरत माना गया है। आज के समय में बुनियादी जरूरतें इससे भी ऊपर जा चुकी हैं पर ये तीन तो बनी हुई हैं और सर्वमान्य हैं। अर्थव्यवस्था के पेचीदा आंकड़ों में पड़े बगैर हम बहुत संक्षेप में ही इनको देख लें –
रोटी: दुष्यंत कुमार जी ने कहा था–
भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुद्दआ
हालांकि इसके बर-अक्स ये भी ठीक नहीं कि हम फुटपाथ पर लेटे एक भूखे गरीब को पूरे देश का प्रतिनिधि चेहरा मान लें और हाय कलाप करें। जो लोग मेहनत कर के कमा रहे हैं वो खरीद के रोटी भी खा रहे हैं। कैसे और किस कीमत पर ये जरूर लंबी बहस का मसला है।
कोई पांच सितारा होटल में दो लोगों के लिए दस हजार रुपये का बिल चुका रहा है और कोई 20 रुपये में वड़ा पाव खा रहा है। ठीक है जिसके पास है वो खर्च कर रहा है। पर आकलन इस आधार पर होगा कि घर में भोजन की थाली के क्या हाल हैं। दाल फिर 100 रुपये किलो है और सब्जियां 40-50 रुपये किलो से ऊपर। अगर आपको खुद रोज हरी सब्जी खरीदने से पहले सोचना पड़ रहा है तो बहुत अच्छे दिन तो नहीं हैं।
रोटी को लेकर एक और अहम मुद्दा ये है कि अन्न उगाने वाला किसान और उसे ग्रहण करने वाला आम आदमी दोनों ही इसको लेकर दुखी हैं। सारे नहीं, पर बहुत सारे। जैसा कि इकबाल कह गए –
जिस खेत से दहकां को मयस्सर न हो रोटी
उस खेत के हर गोशा-ए-गंदुम को जला दो
(दहकां- किसान, गोशा-ए-गंदुम – गेहूं की बाली)
कपड़ा: तन तो हर कोई ढंक ही लेता है। कोई चीथड़े से कोई लुई फिलिप से। पर हां जिसे अच्छे कपड़े पहनने की आस है और वो शोरूम के बाहर टकटकी लगाए खड़ा है तो फिर उसे अच्छे दिनों का इंतजार करना पड़ेगा। बात फिर वही है कि भले ही सारा हिंदुस्तान नंगा नहीं घूम रहा पर वो तन ढंकने के लिए जो जतन कर रहा है उसमें तो ‘चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन’..... और क्या कहिए?
 मकान: ये बहुत गंभीर और पेचीदा मसला है। यहां बहुत हताशा और निराशा है। खुद के लिए एक अच्छा मकान अगर आज से 15 साल पहले पहुंच से बाहर था तो आज भी है। जमीन के दाम भी आसमान छू रहे हैं और मकान के भी। अगर तनख्वाह दुगुनी हुई है तो घर और जमीन के दाम चौगुने। तो आबुदाना ढूंढ़ने की कवायद जस की तस है। नए जमाने के जमींदार घोड़े पर बैठकर हंटर लेकर नहीं आते, वो तो जमीन और घर का सपना देखने वालों को लूटते चले जाते हैं। मद्दीवाडा है तो वो बेचने वाले के लिए। प्रॉपर्टी के कारोबारी के लिए। आम आदमी के लिए घर तो सपना ही है। घर इतने भयानक महंगे हो गए हैं और ऐसी-ऐसी कारीगरी हुई है जमीन को लेकर कि यहां तो खैर सबकुछ समेटा ही नहीं जा सकता। पर किसी के पास चार मकान और दो फ्लैट हैं और कहीं जिंदगी किराये के मकान में कट रही है।
इसके अलावा किसी भी समाज की रीढ़ मानी जाने वाली दो और बुनियादी जरूरतों को देख लेते हैं। ये हैं –शिक्षा और स्वास्थ्य। इन दोनों ही मामलों में पिछली सरकारें ही नहीं एक देश के रूप में भारत भी बुरी तरह विफल हुआ है। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं दोनों ही इतने महंगे हो गए हैं कि उच्च वर्ग के भी पसीने छूट जाते हैं। आम आदमी की तो बिसात ही क्या? ऐसा लगता है कि शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों ही मामलों में जनता को पैसे के भूखे भेड़ियों के सामने छोड़ दिया गया हो। जितना लूट सकते हो लूट लो।
शिक्षा: अच्छे निजी स्कूल में बच्चों को पढ़ाना मजबूरी है क्योंकि अच्छे सरकारी स्कूल हैं नहीं। निजी स्कूल जो फीस बोलें वो दो और सहो। यहां पाठ्यक्रम की बात तो हम कर ही नहीं रहे, क्या हमारी शिक्षा हमें ज्ञान भी दे पा रही है? क्या डिग्री सचमुच प्रतिभा का पैमाना है? ये सब सवाल अलग बहस और अलग आलेख का मुद्दा होंगे पर क्या हम बच्चों को स्कूल भेज रहे हैं या स्कूल के नाम पर खुल गई दुकानों में जहां सब बस पैसे के लिए है और बिकाऊ है। फिर वही बात, सारे खराब नहीं हैं, पर बहुत सारे खराब हैं। अपवाद हैं। पर अफसोस ये ही है कि अच्छे स्कूल अपवाद हैं, बुरे नहीं। और जिस समाज में अच्छाई अपवाद के रूप में पाई जाती हो और बुराई बहुतायत में मिलती हो, वो समाज कैसे अच्छे दिनों का नारा बुलंद कर सकता है?
स्वास्थ्य: किसी भी ठीक-ठाक अस्पताल में भर्ती हो जाइए। इलाज होगा कि नहीं ये बाद में लेकिन बिल तगड़ा आएगा। बीमा है तो और भी तगड़ा। उसके बाद भी सही इलाज मिलेगा कि नहीं, कोई गारंटी नहीं है। ये ठीक है कि चिकित्सा शिक्षा महंगी है। उपकरण महंगे हैं। सुविधा उपलब्ध करवाने में खर्च होता है। पर खर्च कर के भी सुविधा मिले तो? भरोसा तो हो कि जबरन जांच या ऑपरेशन नहीं हो रहे। इलाज बिल्कुल ठीक मिलेगा। खर्च को कम करने के लिए क्या हो रहा है? इन खर्चों पर कोई नियमन है? फिर वही, यहां भी अच्छाई है पर अपवादस्वरूप....। ज़्यादा है तो लूट लेने की लालसा।
ये भी हमको ईमानदारी से स्वीकारना होगा कि ये जो समस्याएं हैं और जो क्षरण है ये कई सालों में आया है। इसके होने के लिए ये सरकार जिम्मेदार नहीं है, पर इसे सुधार नहीं पाई या उस दिशा में कदम भी नहीं उठा पाई तो फिर इसे अच्छे दिनों का नारा बुलंद नहीं करने देंगे। इस सरकार से ये उम्मीद करना कि ये यकायक ठीक हो जाएगा, बेईमानी होगी। पर इस दिशा में सोच और काम नहीं होगा तो अच्छे दिन बस जुमले में ही रह जाएंगे। ऐसे ही और मोर्चों की पड़ताल भी होगी पर ये वो पांच बुनियादी मोर्चे हैं जिससे हर आदमी को हर रोज जूझना है।


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